Thursday, May 8, 2008

सच्चे दिल से दुआ


Liked this article also by Nida Faazli Sahab, on secularism.

http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2007/10/071003_nida_column.shtml

Excerpts of it are given below.

-----------------------

शोएब मलिक पाकिस्तान की क्रिकेट टीम के कप्तान का नाम है. ट्वेंटी-20 विश्व कप के फ़ाइनल के बाद, नियमानुसार भारत और पाकिस्तान की टीमों के युवा कप्तानों से रवि शास्त्री ने बात की.
पहले हारी हुई टीम के कप्तान शोएब मलिक को बुलाया गया. उन्होंने बात शुरू करने से पहले कहा, "पहले मैं पाकिस्तान के अवाम और दुनिया के तमाम मुसलमानों का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा."

वह पाकिस्तानी हैं. वहाँ की जनता के संबोधन में वह जो भी कहें, इसका उन्हें अधिकार है...लेकिन इस संबोधन में दुनिया के सारे मुसलमानों को शामिल करने की क्या ज़रूरत थी.

-------

मैंने जब अख़बार में पढ़कर उसे बताया कि ट्वेंटी-20 में भारत की विजय के लिए शाहरूख़ ख़ान ने खुदा से दुआ माँगी और भारत जीत गया तो उसने मुझे पान देते हुए जवाब में कहा...भाई साहब आप तो पढ़े लिखे हैं, अख़बार की हर ख़बर सच नहीं होती.
....शाहरूख पेशेवर हैं, उनका प्रेम, लड़ाई, सगाई, हँसना, रोना सब स्क्रीन का झूठ होता है, इसका संबंध उनके जीवन से नहीं और झूठ बोलने वाले की खुदा कभी नहीं सुनता.

इस जीत के लिए रोज़े में नमाज़ पढ़के मैंने सच्चे दिल से दुआ की थी जो पूरी हुई और धोनी जीत गया.

यह जीत अभिनेता शाहरूख़ और उनके बेटे की दुआओं का नतीजा है. इरफ़ान और यूसुफ़ के रोज़ेदार और नमाज़ी पिता की दुआओं का फल है. युवराज सिंह के परिवार की शुभेच्छाओं के कारण है, रायबरेली के प्रताप सिंह की प्रार्थना की वजह से है, भज्जी के प्रांत के शब्द इसमें शरीक है या मेरे घर के सामने पानवाले के सबब है.
मगर यह हक़ीक़त है इस जीत में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सबकी खुशी शामिल है. यह सबकी दुआओं का हासिल है और सबके लिए ही गर्व के काबिल है.
जैसे कबीर, ग़ालिब, मीरा, टैगोर अलग-अलग प्राँतों और भाषाओं के होते हुए पूरे देश की विरासत हैं, उसी तरह क्रिकेट में यह विजय भी धर्म, जाति और प्राँत से ऊपर है.


शोएब का बयान इस हार-जीत में धर्म की सियासत ही नहीं है, ईश्वर या भगवान के नाम का ग़लत इस्तेमाल भी है.

------

हालाँकि शोएब इस्लामी मुल्क़ के बाशिंदे हैं और शाहरूख ख़ान सेक्युलर देश के नागरिक हैं. दोनों मुल्कों में खुदा के मिज़ाज के दो अलग-अलग रूप है.
एक रूप पाकिस्तान में है, जो इस्लाम के अलावा किसी दूसरे धर्म को मान्यता नहीं देता. उसी खुदा की दूसरी सूरत भारत में है, जहाँ वह मस्जिद के साथ, चर्च में, गुरूद्वारे में, मंदिर में, सिनागोग में, हर जगह मौजूद होता है.

-----

‘बात जो दिल से निकलती है असर रखती है’

हमारे युग में कविता में विचार को ज़रूरी समझा जाता है, मगर जो बात याद रखने की है उसे भुला दिया जाता है और वह यह है कि कविता, विज्ञान, इतिहास, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान या दर्शन से नहीं बनती, कविता स्कूल की टीचर या कॉलेज का अध्यापक नहीं होती-वह पाठकों या श्रोताओं को स्टूडेंट्स की तरह कुछ सिखाती नहीं...वह तो केवल उस विस्मय को दर्शाती है जो बच्चों की आँखों में नज़र आता है, उस आनंद को जगाती है जो मुस्कुराते फूलों को देखकर मन में जगमगाता है, मानव के अंदर छिपी उस इंसानियत को गुदगदाती है जो संसार को जीने के योग्य बनाती है...दूसरे शब्दों में यूँ कहा जा सकता है कि कविता देखे हुए को नहीं दिखाती, देखे हुए में जो अनदेखा होता है उसे दर्शाती है.

आधुनिक युग में, छंद से दूरी, शब्दों की लयकारी को न पहचानने की मजबूरी, और दूसरों को सिखाने या समझाने की मजदूरी ने कविता को पूरी से अधूरी बना दिया है. आधुनिक कविता विशेषकर छंदमुक्त, को पढ़ने या सुनने के बाद, कविता का केवल भाव जेहन में रहता है, उसकी पंक्तियाँ याद नहीं रहतीं...12वीं सदी के बाबा फ़रीद का दोहा अब तक लोगों की ज़बान पर है

कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खइयो मांस
दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस

बीसवीं शताब्दी के रघुपति सहाय फ़िराक का शेर जिस पर आचार्य रजनीश का एक पूरा डिसकोर्स है वह यूँ है

मुद्दतें गुजरीं तेरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों, तुझे ऐसा भी नहीं

इन शेरो और दोहों के याद करने के पीछे वही चमत्कार काम कर रहा होता है जो एक पंक्ति में यूँ कहा जा सकता है...‘बात जो दिल से निकलती है असर रखती है’

N
ida Faazli, Noted poet, in an article.
http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2007/08/070826_vv_nida_column.shtml